शांति का संदेश देती उच्च हिमालय क्षेत्र की यात्राएं, नंदा की कैलाश विदाई
राज्य प्रवक्ता
उच्च हिमालय क्षेत्र गांवों की सांस्कृति, परंपरा और रीति-रिवाज समूचे देश को शांति का संदेश देते हैं। सुकून और संतोष कहीं है तो हिमालय के शिखरों पर है, यही वजह भी है कि हिमालय को देवता का वास स्थल कहा गया है। ऋषि-मुनि देहिक, दैविक और आध्यात्मिक ताप की शांति के लिए हिमालय की ओर प्रस्थान करते थे। गढ़वाल हिमालय के गांवों की परंपरा है कि साल में एक बार मेले कौथिग के माध्यम से हिमालय की उतुंग शिखरों के पास पहुंचना। यहां न सिर्फ मानव की मस्तिष्क की उलझने खत्म होती है बल्कि मानव नई ऊर्जा को अपने में समेट कर वापस लौटता है। सही मायने में यदि शांति है तो बस यही है, यही है, यही है
चमोली जिले में स्थित बधाण की नंदा को वेदनी बुग्याल, दशोली की नंदा को बालापाटा और बंड की नंदा को नरेला बुग्याल में नंदा सप्तमी के अवसर पर जागरो और लोकगीतों के साथ कैलाश के लिए विदा किया गया। हिमालय की अधिष्टात्री देवी माँ नंदा की वार्षिक लोकजात यात्रा का नंदा सप्तमी के अवसर पर नंदा के कैलाश विदा होने के साथ ही विश्राम हुआ। परंपरा चलती रहेगी इसलिए समाप्त नहीं कहा जा सकता। नंदा की यह यात्रा वन के समाप्त होने के बाद हिमरेखा यानि 3800 से 42 सौ मीटर की ऊंचाई तक होती है। यहां वृक्ष विहिन इस धरा पर दूर तक हरे बुग्याल और हिमाच्छादित चोटियों के बीच पानी के ताल ऐसे महसूस होते हैं जैसे आकाश के दर्पण हों।
हिमालयी बुग्यालों में श्रद्धालुओं नें पौराणिक लोकगीतों और जागर के साथ हिमालय की अधिष्टात्री देवी माँ नंदा को कैलाश के लिये विदा किया। नंदा को बेटी का सम्मान देते हुए उसे ससुराल विदा करने के जो क्षण होते हैं वह इस मेले में देखने को मिलेगा। न सिर्फ महिलाएं बल्कि कई पुरूषों की भी आंखें झलक जाती हैं। नंदा को खाजा- चूडा, बिंदी, चूडी, ककड़ी, मुंगरी भी समौण के रूप में मां नंदा को अर्पित किये जाते हैं। माँ नंदा राजराजेश्वरी की डोली गैरोली पातल से वेदनी बुग्याल पहुंची। जहां पहुचते ही मां नंदा की डोली ने पूरे वेदनी कुंड की परिक्रमा की, जिसके बाद माँ नंदा की पूजा अर्चना कर भेंट अर्पित की गई और इसके बाद माँ नंदा को जागरो और लोकगीतो से स्तुति की गई। इस अवसर पर वेदनी कुंड में पित्रों की शांति के लिए तर्पण भी किए जाते हैं।
नंदा के ससुराल गमन के साथ ही शुरू हुई सर्दी
नंदा को कैलाश विदा करनें के पश्चात डोली और छंतोली वापस लौट आई है। ये मान्यता है कि नंदा की लोकजात सम्पन्न होने के बाद जैसे ही डोली वापस लौटती है वैसे ही उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ठंड भी शुरू हो जाती है और भेड़-बकरी पालन करने वाले पालसी भी रे हिमालय से मैदानी इलाकों की ओर वापस लौटने लग जाते हैं। बुग्यालो में मौजूद हरी घास भी पीली होना शुरू हो जाती है और कुछ दिनों बाद बर्फ से ढक जाती है। अब इस क्षेत्र में मानवों की चहलकदमी भी बंद हो जाती है। यह लोक परंपरा है।
गीत, जागर और नृत्य से नंदा की स्तुति
नंदा के इस विदाई समारोह में दो दिन तक वेदनी और रूपकुंड में सांस्कृतिक महोत्सव आयोजित किया जाता हैं। वाण, कुलिंग, कनोल, बलाण, बांक के महिला मंगल और विद्यार्थी मां नंदा पर आधारित प्रस्तुतियां देकर मेले को यादगार बना दे हैं। बच्चों में संस्कार स्थानांतरण का भी यह लोक पर्व है।